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ग़म हर इक आँख को छलकाए ज़रूरी तो नहीं / 'फना' निज़ामी कानपुरी

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ग़म हर इक आँख को छलकाए ज़रूरी तो नहीं
अब्र उठे और बस जाए ज़रूरी तो नहीं

बर्क़ सय्याद के घर पर भी तो गिर सकती है
आशियानों पे ही लहराए ज़रूरी तो नहीं

राह-बर-राह मुसाफिर को दिखा देता है
वहीं मंज़िल पे पहुँच जाए ज़रूरी तो नहीं

नोक-ए-हर ख़ार ख़तरनाक तो होती है मगर
सब के दामन से उलझ जाए ज़रूरी तो नहीं

गुँचे मुरझाते हैं और शाख़ से गिर जाते हैं
हर कली फूल ही बन जाए ज़रूरी तो नहीं