भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़म हर इक आँख को छलकाए ज़रूरी तो नहीं / 'फना' निज़ामी कानपुरी
Kavita Kosh से
ग़म हर इक आँख को छलकाए ज़रूरी तो नहीं
अब्र उठे और बस जाए ज़रूरी तो नहीं
बर्क़ सय्याद के घर पर भी तो गिर सकती है
आशियानों पे ही लहराए ज़रूरी तो नहीं
राह-बर-राह मुसाफिर को दिखा देता है
वहीं मंज़िल पे पहुँच जाए ज़रूरी तो नहीं
नोक-ए-हर ख़ार ख़तरनाक तो होती है मगर
सब के दामन से उलझ जाए ज़रूरी तो नहीं
गुँचे मुरझाते हैं और शाख़ से गिर जाते हैं
हर कली फूल ही बन जाए ज़रूरी तो नहीं