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ग़रीबी में कहाँ कोई फ़साना याद रहता है / हरिराज सिंह 'नूर'

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ग़रीबी में कहाँ कोई फ़साना याद रहता है।
मगर वो आशिक़ी का ग़म पुराना याद रहता है।
 
बहुत मुमकिन है दिल की चोट को हम भूल भी जाएं,
मगर वो प्यारी आँखों का निशाना याद रहता है।

कोई भी काम दुनिया का भुलाया जा सके लेकिन,
किसी का नाम भूले से मिटाना याद रहता है।

ये हुस्नो इश्क़ की बाज़ी चले तो चलती ही जाए,
मगर बीता हुआ कल का ज़माना याद रहता है।

नशे में कुछ नहीं रहता है मुझको याद पर तेरा,
दबाकर मुँह में आँचल दौड़ जाना याद रहता है।

किसे वो याद रहते हैं जो कंकर झील में फेंके,
मगर पहला वो इक बोसा चुराना याद रहता है।

अभी तक याद है मुझको बरसना ‘नूर’ का पैहम,
मगर सब को कहाँ मंज़र सुहाना याद रहता है।