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ग़ालिब और मैं / सपन सारन

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जो मैं ग़ालिब की प्रेमिका होती तो ?
सोचो ! ?

सोचो सोचो !

हम दोनों एक साथ रहते
एक ही घर में
घर कैसा होता ?
दीवारें : शायराना
खिड़कियाँ : उलटा रखा पैमाना
जितने रोशनदान उतने दरवाज़े ।
कबूतर यहाँ वहां
— वराण्डे में
अन्धेरी के फ़्लैट में नहीं समा पाता हमारा प्रेम ।
मुझे लगता हमारी ख़ूब जमती :
मैं बी०एम०सी० की बुराई करती,
ग़ालिब हैदराबाद के निज़ाम की ।
मैं अँग्रेज़ी में गिट-पिट करती,
ग़ालिब फ़ारसी में नाज़ !
अक्षर कम पड़ जाते,
होतीं नज़्में अनगिनत !

ग़ालिब जाम के शौक़ीन !
हम मिलकर पीते
पीकर शेर-ओ-शायरी होती
महफ़िल जमती
मैं उनकी सूफ़ी उन्मुक्तता पर मुग्ध
वो मेरी शान्त समझदारी के शुक्रगुज़ार !

हमारा एक कुत्ता होता
जिसे ग़ालिब सुबह ६ बजे
सैर पर ले जाते !
कमाता कौन ?
मैं रंगमंच से ?
या ग़ालिब ज़फर से ?
कमाने की ज़रुरत किसे
सारे ऐश-ओ-आराम तैरते
गज़लों में
और ग़ज़लें होतीं ज़ुबानों पे ।

हमारे झगड़ों की जुगलबन्दी के
लालक़िले में चर्चे होते
‘यूट्यूब’ पर लिंक्स डलते ।
जो जीतती मैं
तो ग़ालिब को चाय बनानी पड़ती
जो जीतते वो ...
(वैसे ऐसा होता नहीं !)
तो घर में उस रोज़ गोश्त बनता ।

और अगर कहीं इश्क़ में
हम बिछड़ जाते ?
तो सोचो !
ग़ालिब और मैं —
दो शताब्दियों की जुदाई पर
जाने क्या क्या लिख जाते !

… दिल को बहलाने के लिए
ये ख़याल कैसा है ग़ालिब ?