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ग़ुबार-ए-राह के मानिंद रेह-गुज़ार में हैं / निकहत बरेलवी

ग़ुबार-ए-राह के मानिंद रेह-गुज़ार में हैं
हमारा क्या है भला हम भी किस शुमार में है

अगर वो ग़ैर के हाथों में खेलते हैं तो क्या
हम अपने आप भी कब अपने इख़्तियार में हैं

हमारा आलम-ए-हसरत भी है अजीब कि हम
गुज़र गए हैं जो दिन उन के इंतिज़ार में हैं

ज़माना अपनी हदों से निकल के फैल गया
और एक हम कि अभी अपने ही हिसार में हैं

ये अपना शहर अंधेरों का शहर है शायद
बड़े अज़ाब यहाँ रौशनी से प्यार में है