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ग़ैरतों को ये क्या हो गया / रचना उनियाल

ग़ैरतों को ये क्या हो गया।
हमनवा बेवफ़ा हो गया।
 
पास होते हुए कुछ नहीं,
आदमी दिल जला हो गया।
 
चाहतें कह रहीं हैं सुनो,
इश्क़ का माजरा हो गया।
 
ज़िंदगी की गिरह तोड़ना,
रोज़ का क़ायदा हो गया।
 
खोल क़ानून आँखें कभी,
शक्ल पर क्यों फ़िदा हो गया।
 
ज़ख़्म अहसास का भूल कर
दर्द का सिलसिला हो गया।
 
बात ‘रचना’ कहे गर नहीं,
ये अजूबा बड़ा हो गया।