भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़ौर कर / गौतम राजरिशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितने हाथों में यहाँ हैं कितने पत्थर, ग़ौर कर
फिर भी उठ-उठ आ गए हैं कितने ही सर, ग़ौर कर

आसमाँ तक जा चढ़ा संसेक्स अपने देश का
चीथड़े हैं फिर भी बचपन के बदन पर, ग़ौर कर

जो भी पढ़ ले आँखें मेरी, मुझको दीवाना कहे
तू भी तो इनको कभी फुर्सत से पढ़ कर ग़ौर कर

शहर में बढ़ती इमारत पर इमारत देख के
मेरी बस्ती का वो बूढ़ा काँपता 'बर', ग़ौर कर

यार जब-तब घूम आते हैं विदेशों में, मगर
अपनी तो बस है क़वायद घर से दफ़्तर, ग़ौर कर

उनके ही हाथों से देखो बिक रहा हिन्दोस्ताँ
है जिन्होंने डाल रक्खा तन पे खद्दर, ग़ौर कर

इक तेरे 'ना' कहने से अब कुछ बदल सकता नहीं
मैं सिपाही-सा डटा हूँ मोर्चे पर, ग़ौर कर