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गाँव-पुरवे भी दहे हैं / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

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दिन अलौकिक
थे कभी जो
अब निरर्थक लग रहे हैं

दिख रहीं सूर्यास्त की पगडंडियाँ हैं
कटी-बिखरी देवघर की झंडियाँ हैं

लाखघर की
है धरोहर
गाँव-पुरवे भी दहे हैं

राख से आकाश पूरा ढँक गया है
धुएँ का इतिहास दिन लिखता नया है

नदी में भी
थके-हारे
अक़्स सूरज के बहे हैं

कल समर में भाग हमने भी लिया था
मृत्यु का वह पर्व हमने भी जिया था

महारण में
ज्वाल उपजे
ताप परजा ने सहे हैं