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गाँव की गुजरिया / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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गाँव की गुजरिया-
कहीं नाचे रे!

दँहकी के संग-संग बाँसुरिया तान भरे,
धीमे से नस-नस की पीर हरे, प्रान भरे;
कौन से जनम के सुने
गीत की भनक पड़ी,
भरने लगीं रागिनी कुलाँचे रे!

गहरी बेहोशी में पेड़ों से झरैं पात,
गाय-भैंस बछड़ों की ठगी खड़ी रहै पाँत;
लहरों के पृष्ठों की-
उलट पलट,
पास की तलेया यह कौन कथा बाँचे रे?

दूरागत वंशी की ध्वनियाँ सब डूब चलीं,
उड़ती हुई चिड़ियों की छायायें हिली डुलीं,
गाँठ-गाँठ पानी में
बागुला मुदरिंस-सा-
प्रश्न-पुस्तिका को मौन जाँचे रे।