आशाएं धूमिल हुईं, सपने हुए उदास 
सब के द्वारे बंद हैं, जाएँ किसके पास 
मंहगाई के दौर में, सरल नहीं है राह 
जीवन नैया डोलती, दुःख की नदी अथाह 
मौन खड़े हैं आजकल, मीरा, सूर, कबीर 
लोगों को सुख दे रही, आज पराई पीर 
कैसे झेले आदमी, मंहगाई की मार 
सूख रहे है द्वार पर, सपने हरसिगार 
छूएगी किस शिखर को, मंहगाई इस साल 
खाई में जनता गिरी, रोटी मिले न दाल 
जीवन यापन के लिए, कोशिश हुईं तमाम 
पेट, हाथ खाली रहे, मिला बन कोई काम 
खाली, खाली मन मिला, सूने सूने नैन 
दुविधाएं मेहमान थीं, गाँव बहुत बेचैन