गाँव में अफ़सर / अशोक कुमार पाण्डेय
उस तरह नहीं आता गाँव में अफ़सर
जैसे आती है बिटिया हुलसकर ससुराल से
या नई दुल्हन लाँघते आशंकाओं के पहाड़
उस तरह तो बिल्कुल नहीं
जैसे हाट बाजार से भकुआए हुए
आजकल लौटते हैं काका
और वैसे भी नहीं
जैसे छुट्टियों में लौटते हैं कमासुत ।
न पगलाई नदी की बाढ़-सा उफनता
न इठलाता पुरवा की मदमस्त बयारों-सा
जेठ की उन्मत्त लू या सावनी फुहारों-सा भी नहीं
अफ़सर तो बस अफ़सर-सा आता है गाँव में !
सीमा पर पड़ते हैं पाँव
और नगाड़े-सी गूँज जाती है धमक
धरती की शिराओं में
मुस्कुराता है तो हँसने लगती है चौपाल
और तनते ही भृकुटियों के
सूख जाते हैं हरे भरे ताल
माथे की लकीरों से मुचमुचाए कुरते की
काई-सी नीली जमीन
सँवारते अगियाए लोटे से
गुनते हैं चौकीदार जुगत
बरसों से ठहरी
पाँच सौ की रकम बढ़ाने की सिफ़ारिश की
लाज आती है जिसे अब पगार कहते
मुर्गे के साथ हलाल कर
कई सारे अँखुआते स्वप्न
रोपता है कोई
बंजर होती जा रही उम्र पर
किसी गलीज़-सी नौकरी की उम्मीद
संदूक की सात परतों से
निकालते हुए दहेजू बर्तन
और पुरखों से माँगते हुए क्षमा
जुटाते हैं सरपंच
अगली किस्तों के भुगतान की शर्तें
सन्निपात-सा उभर आता है पूरा गाँव
मन में डर और उम्मीदें
आँखों में घिघियाती अर्ज़ियाँ लिए
समय का सवर्ण है अफ़सर
ढाई क़दमों में नाप लेता है
गाँव का ब्रह्माण्ड ।
क़लम की चार बूँद स्याही में
समेट लेता है
नदी का सारा जल
वायु का सारा सन्दल
मिट्टी की सारी उर्वरा
मनष्य की सारी मेधा !
........................और फिर
इस तरह जाता है गाँव से अफ़सर
जैसे मरूस्थल की भयावह प्यास में
आँखों से मायावी सागर !