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गांधी मुझे मिला / असंगघोष

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गांधी
मुझे मिला
गांधी चौक में
पीपल की छाँव तले
खोमचे के पीछे
ओटले पर खड़ा-खड़ा
अपनी नाक खुजाता
बिना चश्मा लगाए
कभी चाट
कभी फल
कभी चाय
कभी कपड़े
वगैरह बेचता हुआ

वह घिरा था
अपनों से
चेलों से
अनुयायियों से
नेताओं से और
पूंजीपतियों से
इनमें से कोई नहीं चाहता
कि गांधी
दिखाई दे
जनता को और
सार्थक करे चौक का नाम
क्योंकि इसके लिए
किसी न किसी को
करना होता जतन
और यदि कोई जतन होता तो,
घेरा कम होता
धरना अनशन वगैरह के लिए
जगह कम न पड़ती
इसलिए वे नहीं चाहते
कि घेरा कम हो
गांधी जनता को दिखे
भले ही लगाता रहे
गांधी!
खोमचा
रेहड़ी वगैरह वगैरह
और चिल्लाता रहे
”सेब पपड़ी चना चबेनावालाजी“।