गांव, गोरु और घुरहू / संजय शेफर्ड
टुकड़ा- टुकड़ा धूप
आसमान से टूट- टूट कर गिरती
इकट्ठा होती रहती है
घुरहू की काली पीठ पर
और बन जाती है
कभी- कभी उसके माथे का दर्द
महज टुकड़ों- टुकड़ों में ही
यही कतरा- कतरा दर्द
रघ्घू की निरीह आंखों में भी है
इस महिने भी बारिश नहीं हुई
फिर भी वह बहा देना चाहता है
परिस्थियों के सारे कचरे को
अपनी मेहनत और जांगर के जोर पर
आंसूओं के साथ दूर कहीं
धनिया जानती है
आंसुओं के टूटने से बारिश नहीं होगी
ना ही बच्चों के काल कलिया खेलने से
निर्मोही बादलों की आंख रिसेगी
फिर भी इकट्ठा कर लाई है
गांव के दर्जन भर बच्चों को
अपने ही दुयारे पर तपती धरती में
अंजुरी भर पानी डाल बना रही है कलई
बच्चे लोट- पोट हो रहे हैं
उसी अंजुरी भर पानी
उसी अंजुरी भर सूखी धरती
उसी अंजुरी भर आंसूओं
उसी अंजुरी भर जलती पीठ की खातिर
शाम के निवाले से बेखर
खेल रहे हैं काल कलिया
अपने आंसूओं से सनी गीली मिट्टी में
महज नन्ही- नन्ही बारिश की बूंदों की खातिर।