गांव-गांव सब उजड़ रहे हैं / हरि नारायण सिंह 'हरि'
गांव-गांव सब उजड़ रहे हैं, बसता नया शहर है!
जड़ से हमसब उखड़ रहे हैं, किसको कहाँ खबर है!
नहीं खबर है, कौन पड़ोसी और कौन अपना है,
मिलकर सुख-दुख बतिया लें हम, हुआ यहाँ सपना है।
काम नहीं तो तन्हाई में बीता आठ पहर है।
जानबूझकर सब सुविधाएँ मिलती जहाँ शहर को,
हिस्से में है गांव भोगता जाए सभी कहर को।
गांवों में कटुता ही कटुता, पसरा हुआ जहर है।
रोजगार की किल्लत मित्रो, ऊंच-नीच का झगड़ा,
गाँवों में क्योंकर फैला है जात-पात का रगड़ा!
विद्यालय का मतलब बिगड़ा, मिड डे मिल का घर है।
अस्पताल खुल रहे किन्तु रहते हैं नहीं चिकित्सक,
मुखिया जी की मिलीभगत से बने गांव के शिक्षक।
जाॅबकार्ड का खेल चल रहा, नहीं किसी का डर है।
सब कहते हैं देश बदलता, हम भी बदल रहे हैं!
सभ्य हुए जा रहे, गंवारूपन से निकल रहे हैं!
ई अंग्रेज़ी वाली शिक्षा ही तो सबकी जड़ है।