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गांव-गिरांव फटेहाल / स्वदेश भारती

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सवेरे की पीली धूप चैत्र मास की
मृदुल, मृदुल उष्मा ठण्डी हवा के थिरकते पांव
पकी गेहूँ की सोनाली फ़सल
नृत्य करते एक हृदयग्राही दृश्य उपस्थित करते
पल्लि-पथ पर गायों, भैंसों का रम्भाना
चारागाह की ओर प्रसन्नचित्त जाना
हृदय को पृथ्वी धन और पशुधन के
विविध रूपों से भरता है

चरवाहा गाता है चौताल बिरहा
कान पर हाथ रखकर
जैसे उससे बड़ा-गवैया संसार में कोई नहीं
फूटते हैं लाल टेसू कहीं-कहीं
अर्पित करता अपना रस भरा फूल
मन्दिर में देवी भवानी को अर्पित किए जल को
पीता गांव का भूखा झबरैला-टामी
जो रात भर घरों की रखवाली करता
और किसी कूड़े की ढेर में दुबककर सो जाता

गांव में बसते ग़रीब अमीर नामी-गिरामी
किन्तु सभी एक दूसरे को टेढ़ी आँखों से देखते
यह विसँगति मन को आहत करती
और यह सँकेत देती कि
आज़ादी के पैंसठ साल बाद भी नहीं हुआ विकास
और गांव का सिवान करता रहा अट्ठाहास।

झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़), 09 अप्रैल 2013