भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाई के गोबरे लिपवलीं, घरवा अङना दुआर / रामरक्षा मिश्र विमल
Kavita Kosh से
गाई के गोबरे लिपवलीं, घरवा अङना दुआर
चउमुख दियना जरवलीं, कलशा भइले उजियार।
डलवा सजवलीं अदितमल, केरा निबुआ अनार
सुपवा सजवलीं सुरुजमल, नरियरवा अनार।
घटवा सजवलीं सुरुजमल, ऊँखि के थुम्हिया बनाइ
ताहि पर तनलीं चंदनिया, बरती मन अगराइ।
बरती जे देबे के अरघिया, करे सुरुज गोहार
ऊगीं ना पुरुबवा ए दीनानाथ, लीहीं अरघ हमार।
बरती जे रोवेले बियोग से, बहे लोरवा के धार
भरि द ना गोदिया ए दीनानाथ, दे द खुशिया अपार।