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गाओ / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
मेरे उर के तार बजा कर जब जी चाहा
तुम ने गाया गीत। मौन मैं सुनने वाला
कृपापात्र हूँ सदा तुम्हारा, चुनने वाला
स्वर-सुमनों का। भीड़ भरा है, जो चौराहा
दुनिया का, उस में केवल अस्फुट कोलाहल
सुन पड़ता है। किस को है अवकाश, तुम्हारा
गान सुने, बदले अपने जीवन की धारा
अमृत-स्रोत की ओर। आह, भीषण हालाहल
समा गया है साँस साँस में घृणा-द्वेष का।
देख रहा हूँ व्यक्ति-समाज-राष्ट्र की घातें
एक दूसरे पर कठोरता, थोथी बातें
संधि-शांति की। विजय है दल दंभ-त्वेष का।
गाओ, मन के तारों पर, जी भर कर गाओ
जहाँ मरण का सन्नाटा है जीवन लाओ।