सखियनि मिलि राधा घर लाईं ।
देखहु महरि सुता अपनी कौं, कहूँ इहिं कारैं खाई ॥
हम आगैं आवति, यह पाछैं धरनि परी भहराई ।
सिर तैं गई दोहनी ढरिकै, आपु रही मुरझाई ॥
स्याम-भुअंग डस्यौ हम देखत, ल्यावहु गुनी बुलाई ।
रोवति जननि कंठ लपटानी, सूर स्याम गुन राई ॥1॥
नंद-सुवन गारुड़ी बुलावहु ।
कह्यौ हमारौ सुवत न कोऊ, तुरत जाहु, लै आवहु ॥
ऐसी गुनी नहिं त्रिभुवन कहूँ, हम जानतिं हैं नीकैं ।
आइ जाइ तौ तुरत जियावहि, नैंकु छुवत उठै जी कै ॥
देखौ धौं यह बात हमारी, एकहि मंत्र जिवावै ।
नंद महर कौ सुत सूरज जौ, कैसेहुँ ह्याँ लौं आवै ॥2॥
महरि, गारुड़ी कुँवर कन्हाई ।
एक बिटिनियाँ कारैं खाई, ताकौं स्याम तुरतहीं ज्याई ॥
बोलि लेहु अपने ढौटा कौं, तुम कहि कै देउ नैंकु पठाई ।
कुँवरि राधिका प्राप्त खरिक गई , तहाँ कहूँ-धौं कारैं खाई ॥
यह सुनि महरि मनहिं मुसुक्यानी, अबहिं रही मेरैं गृह आई ।
सूर स्याम राधहिं कछु कारन, जसुमति समुझि रही अरगाई ॥3॥
तब हरि कौं टेरति नँदरानी ।
भली भई सुत भयौ गारुड़ी, आजु सुनी यह बानी ॥
जननी-टेर सुनत हरि आए, कहा कहति री मैया ?
कीरति महरि बुलावन आई, जाहु न कुँवर कन्हैया ॥
कहूँ राधिका कारैं खायौ, जाहु न आवौ झारि ।
जंत्र-मंत्र कछु जानत हौ तुम, सूर स्याम बनवारि ॥4॥
हरि गारुड़ी तहाँ तब आए ।
यह बानि वृषभानुसुता सुनि मन-मन हरष बढ़ाए ॥
धन्य-धन्य आपुन कौं कीन्हौं अतिहिं गई मुरझाइ ।
तनु पुलकित रोमांच प्रगट भए आनँद-अस्रु बहाइ ॥
विह्वल देखि जननि भई व्याकुल अंग विष गयौ समाइ ।
सूर स्याम-प्यारी दोउ जानत अंतरगत कौ भाइ ॥5॥
रोवति महरि फिरति बिततानी ।
बार-बार लै कंठ लगावति, अतिहिं सिथिल भई पानी ।
नंद सुवन कैं पाइ परी लै, दौरि महरि तब आइ ।
व्याकुल भई लाड़िली मेरी, मोहन देहु जिवाइ ॥
कछु पढ़ि पढ़ि कर, अंग परस करि, बिष अपनौ लियौ झारि ।
सूरदास-प्रभु बड़े गारुड़ी, सिर पर गाड़ू डारि ॥6॥
लोचन दए कुँवरि उधारि ।
कुँवर देख्यौ नंद कौ तब सकुची अंग सम्हारि ॥
बात बूझति जननि सौं री कहा है यह आज ।
मरत तैं तू बचो प्यारी करति है कह लाज ॥
तब कहति तोहिं कारैं खाई कछु न रहि सुधि गात ।
सूर प्रभु तोहिं ज्याइ लीन्हीं कहौ कुँवरि सौं मात ॥7॥
बड़ौं मंत्र कियौ कुँवर कन्हाई ।
बार-बार लै कंठ लगायौ; मुख चूम्यौ दियौ घरहिं पठाई ॥
धन्य कोषि वह महरि जसोमति, जहाँ अवतर्यौ यह सुत आई ।
ऐसौ चरित तुरतहीं कीन्हौं, कुँवरि हमारी मरी जिवाई ॥
मनहीं मन अनुमान कियौं यह, बिधिना जोरी भली बणाई ।
सूरदास प्रभु बड़े गारुड़ी, ब्रज घर-घर यह घैरु चलाई ॥8॥