भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गार्बेज / रेणु मिश्रा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गार्बेज,
ये शब्द सुनने में ही
कितना गैरज़रूरी लगता है
ज़ेहन में कितने ही
ख़याल उमड़ आते हैं
वो लगता है....
उतना ही फ़िज़ूल
जितना कि
दुकड़ा कमाने वाले के लिए ख़र्चा
उतना ही टाइम-पास
जितना कि खाली समय में
बोलने बतियाने वाला बेगार दोस्त
उतना ही बेकार
जितना कि
घर के पिछवारे फेका हुआ
उदासी ओढ़े टूटा-फूटा कबाड़
ज़िन्दगी में
कभी-कभी हम भी
किसी किसी के लिए
इतने ही अनुपयोगी हो जाते हैं
कि समझ लिए जाते हैं 'गार्बेज'
दूध में पड़ी मक्खी की तरह
फेंक दिए जाते हैं
दिल की दहलीज़ के पार!!
अब सोचने के लिए
केवल एक सवाल...
क्या आप भी कभी गार्बेज हुए हैं?