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गाहे-गाहे कोई इल्ज़ाम भी आ जाता है / मनोहर विजय

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गाहे-गाहे कोई इल्ज़ाम भी आ जाता है
पीने वालों में मेरा नाम भी आ जाता है

तशनगी बढ़ती है जिस वक्त मेरे होठों पर
रूबरू साक़ी-ए-गुलफ़ाम भी आ जाता है

इन्तज़ार उसका किया करती हैं अकसर रातें
लौटकर घर वो सरे-शाम भी आ जाता है

आपके जाने से होती तो है तक़लीफ़ बहुत
आपके आने से आराम भी आ जाता है

ख़ोटे सिक्के को हिक़ारत से न देख़ो यारो
ख़ोटा सिक्का ही सही काम भी आ जाता है

उसकी ज़ानिब से न मायूस हो इस दर्ज़ा ‘विजय’
कोई तोहफ़ा कोई इन‍आम भी आ जाता है