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गिद्ध जानते हैं / शरद कोकास
Kavita Kosh से
मुर्गे की बाँग से
निकलता हुआ सूरज
चूल्हे की आग से गुज़रते हुए
बन्द हो जाता है
एल्यूमिनियम के टिफ़िन में
बाँटकर भरपूर प्रकाश
जीने के लिए ज़रूरी उष्मा
तकिये के पास रखकर
जिजीविषा के फूल
छोड़ जाता है
कल फिर आने का स्वप्न
यह शाश्वत सूरज
उस सूरज से भिन्न है
जो उगता है कभी-कभार
झोपडपट्टी को
महलों में तब्दील करने की
खोखली गर्माहट लिए हुए
भर लेता है वह
अपने पेट में
मुर्गे की बाँग क्या
समूचा मुर्गा ही
और चूल्हे की आग
रोटी का स्वप्न
नींद का चैन तक
वह छोड़ जाता है अपने पीछे
उसे आकाश की ऊँचाई तक पहुँचाने वाले गिद्धों को
जो जानते हैं
सूरज के संरक्षण में
जिस्मों से ही नहीं
कंकालों से भी
माँस नोचा जा सकता है ।