गिराबोॅ आरो उठाबोॅ / गुरेश मोहन घोष
गिरलै केॅ गिराबोॅ, उठलै केॅ उठाबोॅ
भाँसेॅ दौ दुनिया, तों दुनिया बसाबोॅ
उठला केॅ उठाना बड्डी आसान छै
गिरला केॅ गिराना चुटकी के काम छै
ईटा पर ईटोॅ तुरते दलान छै
मारतै एक काठी मड़ैया मसान छै!
बूड़ी सब मरलै नै सिद्धान्त गाबोॅ
सूरकोॅ डुबाय घैंच नै ऊपर हियाबोॅ!
कहैं छियौं टोट की एक टिक मारै में?
होभेॅ माले माल ठिकदारोॅ केॅ तारै में।
गिरला के उठावै में कान्होॅ दुखाबै छै
बुझथौं नै एक्की माथोॅ भुकाबै छै
फेंकी दौ खोॅर पतार नांकी मँजधारोॅ में
खस्सी के जान की जीहा के लारोॅ में?
परलोकोॅ से पैन्है ई लोके छै आबोॅ
मौका छौं एन्होॅ नै ईखनी जिरबोॅ।
कंठ में लस्कै छौं, सत्तू मजूरै लेॅ
भगमानें बनैलेॅ छौं दूध-घी तौरैलेॅ
नौड़ी तेॅ नौड़ी, नै रानी कहैतै
तुलसी केॅ भाखलोॅ बेरथा की जैतै?
पाँचों औंगरी बरोबर के करतै?
सिंह तेॅ सिंह छेकै घास केना चरतै?
हाथी केॅ मन, कन पिपरी सुंघाबोॅ
भोकरै जों दुनिया नै थरथराबोॅ!
सभ्भे नदी ने समुद्रे भरै छै
पहाड़ॉे परपट्टोॅ पर झरनै झरै छै
अबला के फोटो उघरलेॅ दोकानी में
सबला के सोभै छै केन्होॅ राजधानी में!
कारोॅ पर भेजी तोहूँ बेटी पढ़ाबोॅ
रोपी जे अैलै भनसा थमाबोॅ
बड़कै के भासन लेॅ भोंपा सुनाबोॅ
चें-भें के मुंहों पर ताला लगाबोॅ
गिरलै केॅ गिराबोॅ उठलै उठाबोॅ
भाँसेॅ दो दुनिया तों दुनिया बसाबोॅ।