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गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने का छू कर किस लिए / अफ़ज़ल मिनहास
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गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने का छू कर किस लिए
आ गया फिर आसमानों से ज़मीं पर किस लिए
आईना-ख़ानों में छुप कर रहने वाले और हैं
तुम ने हाथों में उठा रक्खे हैं पत्थर किस लिए
मैं ने अपनी हर मसर्रत दूसरों को बख़्श दी
फिर ये हंगामा बपा है घर से बाहर किस लिए
अक्स पड़ते ही मुसव्विर का क़लम थर्रा गया
नक़्श इक आब-ए-रवाँ पर है उजागर किस लिए
एक ही फ़नकार के शहकार हैं दुनिया के लोग
कोई बरतर किस लिए है कोई कम-तर किस लिए
ख़ुशबुओं को मौसमों का ज़हर पीना है अभी
अपनी साँसें कर रहे हो यूँ मोअŸार किस लिए
इतनी अहमियत के क़ाबिल तो न था मिट्टी का घर
एक नुक़्ते में सिमट आया समुंदर किस लिए
पूछता हूँ सब से अफ़ज़ल कोई बतलाता नहीं
बेबसी की मौत मरते हैं सुख़न-वर किस लिए