भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीतावली उत्तरकाण्ड पद 31 से 40 तक/ पृष्ठ 3

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(33)

जबतें जानकी रही रुचिर आस्रम आइ |
गगन, जल, थल बिमल तबतें, सकल मङ्गलदाइ ||

निरस भूरुह सरस फूलत, फलत अति अधिकाइ |
कन्द-मूल, अनेक अंकुर स्वाद सुधा लजाइ ||

मलय मरुत, मराल-मधुकर-मोर-पिक-समुदाइ |
मुदित-मन मृग-बिहग बिहरत बिषम बैर बिहाइ ||

रहत रबि अनुकूल दिन, ससि रजनि सजनि सुहाइ |
सीय सुनि सादर सराहति सखिन्ह भलो मनाइ ||

मोद बिपिन बिनोद चितवत लेत चितहि चोराइ |
राम बिनु सिय सुखद बन, तुलसी कहै किमि गाइ ||