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गीता में गोविन्द / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’

अशांत भाव पार्थ के, संग्राम थे कुटुम्ब से
भीष्म कुरुक्षेत्र में नेतृत्व डटे कर रहे।

अर्जुन के करुण भाव से, थे पांव लड़खड़ा रहे
प्रत्यंचा न चढ़ाए, पार्थ युद्ध से मुकर रहे।

ज्ञान गीता के दिये जब पार्थ को गोविन्द ने
अज्ञानता के धुंध जब छटे, उजाले कर रहे

नारी हृदय के द्वेषभाव, ही पतन को ले चले,
सत्यवती के सभी, संतान शूली चढ़ रहे।

प्रतिबद्धता थी रही, भीष्म के संकल्प की
राजगद्दी से बंधे, नेतृत्व ही तो कर रहे।

पांचजन्य के नाद से, उद्धोष युद्ध हो गए
कुरुवंश के वंशावली आपस में लड़े, मर रहे।

चाल चौसर के चले, षडयंत्रकारी शकुनि ने,
निर्वस्त्र करते कुलवधू, सभा में धर्म खो रहे

अश्वत्थामा या शिखंडी, घटोत्कच या बरबरी,
दांव अभिमन्यु लगे, मोहरे थे सारे बन रहे।

अधर्म शर्त से लदे, कुरुवंश वृक्ष थे बढ़े
वो पांडु पुत्र पांचों थे जो, धर्म हेतु लड़ रहे।

कौरव ने कपट भाव से, वर्चस्व स्थापित किए
पुत्र मोह में घिरे, धृतराष्ट्र तक न डर रहे।

प्रकट हुए विराट रूप चक्रधारी वासुदेव
अब मोह भंग पार्थ के, टंकार गांडीव कर रहे।

धर्म युद्ध मध्य कृष्ण, पार्थ के ही साथ थे
हनुमंत ध्वज को साथ ले सारथी वो बन रहे।

जब जब जघन्य पाप से बेकल हुई है भारती
अवतार देवता के, दुष्ट दानवों को तर रहे।