कितने ही
गीत-बीज
हिरदय में अनबोये पड़े रहे
कुछ पुरखे कवियों की थे थाती
दिवस-मास-बर्षों की
जोगलिखी थी पाती
कितने ही
थे अनुभव
जो हमने शब्दों में नहीं कहे
इक उजास-बानी थी सूरज की
अनजानी यात्राएँ थीं अनेक
अचरज की
अनगाये रह गये
कितने ही
देह-ताप जो हमने सहे
नहीं हुए सपने संवाद कई
आँखों-ही-आँखों में
धूप-छाँव बिला गई
बहता है
काल-सिंधु
उसमें ही सारे एहसास बहे