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गीत का मुखड़ा / पीयूष शर्मा
Kavita Kosh से
आज मैंने आइने के सामने
देर तक इक गीत का मुखड़ा पढ़ा
इक तुम्हारे प्यार की उलझन दिखी
इक अधूरे स्वप्न की तस्वीर थी
आँख में सरिता उदासी की मिली
भाल पर शोभित तुम्हारी पीर थी
इसलिए मैंने प्रणय की देह पर
वेदना का बेसुरा अक्षर गढ़ा।
लग रहा था चंद्रमा निस्तेज-सा
भावना की नाव दलदल में फंसी
चेतना का बिंदु मुख से हट गया
होंठ से ओझल हुई सारी हंसी
देख मैंने चित्र यह उम्मीद को
टूटते विश्वास के मन में मढ़ा।
तुम मिलोगे एक दिन, इस आस में
नैन के नीचे लकीरें पड़ गईं
दर्द में चेहरा तमाशा बन गया
प्रेम की सब व्यंजनाएँ झड़ गईं
चीख कर शीतल हवाएँ रो पड़ीं
भोर पर काली घटा का रंग चढ़ा।