गीत गाऊँ आज बोलो / राकेश खंडेलवाल
हो गया सिन्दूर का रंग केसरी तप कर विरह में
किस तरह श्रंगार के फिर गीत गाऊँ आज बोलो
पीर ने भेजे मुझे नित नेह के अभिनव निमंत्रण
अश्रुओं ने बाँह फैला कर मेरा स्वागत किया है
लड़खड़ाते पाँव रखती गिर पड़ी जो आस थक कर
एक उसने ही निरंतर साथ बस मेरा दिया है
दस्तकों के अर्थ सिमटे रह गये हैं गिनतियों तक
किस तरह बोलें? हृदय के द्वार अपने प्राण खोलो
सुरधनुष के रंग सारे पी गई हैं कालिमायें
दीप रह रह पूछते हैं और कब तक टिमटिमायें
सूर्य ने अवकाश लेकर भोर से आँखें चुरा लीं
झुनझुने आश्वासनों के अब कहो कब तक बजायें
उठ रहे हैं हर दिशा से तिमिर के गहरे बवंडर
रोशनी की इस अकारण मृत्यु पर, पल आज रो लो
आस्था की ज्वाल हिम की वादियों में सो गई है
बार हर सन्दर्भ के बिन अर्थ अपना खो गई है
नीति के जर्जर पड़े खंडहर, की एक सिल पर
एक बदली संस्कृति के बीज फिर से बो गई है
वक्त की चट्टान पर जो जम गई है राख की तह
क्या दबी उसमें कहीं है कोई चिन्गारी टटोलो