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गीत ज़िन्दगी के / वेद प्रकाश शर्मा ‘वेद’

Kavita Kosh से
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किसी कवि पर बात करना एक प्रकार से कविता पर और परोक्षतः या प्रत्यक्ष रूप से साहित्य तथा कला पर, ही बात करना होता है। साहित्य क्योंकि अन्य कलाओं से थोड़ा इतर है- अपने सरोकारों को लेकर, अतः उसके संदर्भ में बात करने का दायरा भी अधिक विस्तृत और अनेक आयामी हो जाता है। सूत्र रूप में कहें तो सामाजिक बल्कि कहिए मानव-जीवन सरोकारों का कलात्मक रूप से सम्यक परिपाक ही अच्छे साहित्य, अच्छी कविता का विधायक तत्व कहा जा सकता है। यह परिपाक दृष्टि की निर्मलता और विस्तार के बिना असम्भवप्रायः है, इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने हृदय की मुक्तावस्था की बात की है। उस अवस्था को प्राप्त हुए बिना वह सम्यक परिपाक जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है संभव नहीं है।

हिन्दी काव्य में यों तो जन सामान्य की चर्चा या उसका दखल अथवा समावेश विद्वान, कबीर, मीरा और सूर तक में प्रतिष्ठित करते हैं तथापि इस सामान्य अथवा साधारण की प्रतिमा में पूर्ण प्राण-प्रतिष्ठा छायावाद के उपरान्त ही कही जा सकती है। यद्यपि उसका श्रीगणेश, जैसा हम सभी जानते हैं छायावाद में ही हो चुका था। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि इस प्राण-प्रतिष्ठा का श्रेय उस काव्य को जाता है जिसे हम प्रगतिशील काव्य कहते हैं यथार्थवाद इसी प्राण प्रतिष्ठा की स्वाभाविक सुडौल सन्तान है। इस यथार्थवाद के अन्तर्गत खुरदरा यथार्थ, ठोस धरातल जैसे सुन्दर स्वस्थ मुहावरे भी गढ़े गये। यह अलग बात है कि कालान्तर में ये मुहावरे केवल शब्द-भर ही रहे। यथार्थ के नाम पर सतही सपाट बयानबाजी और अखबारों का पद्यानुवाद कितना देखने को मिलता है, इससे हम सब भली प्रकार परिचित हैं। एक बात और हुई, इस खुरदरे यथार्थ के नाम पर प्रगतिशील काव्य के भीतर कुछ नितान्त एकांगी स्वर पैदा हुए, जो कविता कम और वाद अधिक दिखाई देते हैं। किसी ने सही ही कहा है कविता में जब वाद आने लगता है तो फिर केवल वाद बच रहता है, कविता बाहर हो जाती है। स्वर्गीय कुंअर नारायण ने ठीक ही कहा है- साहित्य को प्रतिबद्धता की नहीं वाबस्तगी की दरकार होती है। होनी भी चाहिए।

यतीन्द्रनाथ ‘राही’ जी का प्रस्तुत काव्य-संग्रह ‘ज़िन्दगी ठहरी नहीं है’ इस बात का साक्ष्य है कि ‘राही’ जी का रचनाकार कोई ‘खूंटे बँधा’ बिगुल, प्रवक्ता या पैरोकार नहीं है। उनका रचनाकार प्राणों की सांसों का रचनाकार है। प्राण में जैसी लय होती है, साँस अथवा ज़िन्दगी भी उसी लय का अनुसरण करती है। यह प्राण-तत्व अथवा चेतना क्योंकि जड़ तत्व नहीं, अतः एक-रस नहीं रह सकती। शायद इसीलिए राही जी के रचनाकार की ज़िन्दगी ठहरी हुई ज़िन्दगी नहीं है। यह ज़िन्दगी गतिशील तो है ही, स्पन्दनशील भी है। ‘राही’ जी का रचनाकार मनुष्य को मनुष्य की तरह विशेष रूप से उसके खिलंदर रूप में देखता है, यही कारण है कि जीवन का खिलन्दर रूप उसकी दृष्टि में बना रहता है तमाम झंझटों, छल-छन्दों और फंदों के चलते हुए भी। जिस यथार्थ का उल्लेख पहले किया गया है, वह युग-दृष्टि सम्पन्न हो और युग-बोध के साथ हो तो कविता में या कहिए साहित्य में कुछ बात बनती है। युग-यथार्थ, युग-बोध के साथ जब कलात्मक रूप से सम्यक अभिव्यक्ति पाता है, तब निस्संदेह कविता आनन्द की वर्षा भी करती है। इस वर्षा का स्वरूप फुहार से लेकर मूसलाधार तक हो सकता है। ‘राही’ जी के रचनाकार की अभिव्यक्ति के हिस्से क्या आया है, यह तो सुधी समीक्षक, आलोचक तय करेंगे, किन्तु इतना अवश्य है कि इस रचनाकार की दृष्टि ने मनुष्य को भिन्न-भिन्न रूपों, मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं में देखते हुए अपने आपको रचनाकार के धर्म की कसौटी पर खरा उतारा है। कोई झंडा, ध्वज, पताका उसने धारण नहीं की है। जैसा पहले कहा जा चुका है कि ‘राही’ जी का रचना-कर्म किसी खूंटे से बँधा रचना कर्म नहीं है, किन्तु इतना तय है कि अपने आस-पास व्याप्त भली बुरी चीज़ से उनकी नज़र बराबर टकराती दिखाई देती है। यह टकराहट एक सच्चे रचनाकार की टकराहट है, विशुद्ध रचनाकार की टकराहट। परिस्थितियाँ और स्थितियों के चलते वह परिवेश जहां हम सब रहते है, नफरत दहशत से रोज रूबरू होता है, ऐसे में कवि तटस्थ नहीं रहता, राही का कवि कुछ विवश-सा खीझता है, एंठता-सा है किन्तु अंततः आक्रोश उसकी कलम पर आ ही बैठता है-

नफरतें हैं/दहशतें हैं/आदमीयत है कहां
नीतियां बहरी बहुत हैं /न्याय अंधे हैं यहां।
प्यार की कीमत कहां है। /रूप के बाजार में
आबरू ईमान की लुटती/कोई कब तक सहेगा

‘राही’ जी का रचनाकार इस विडम्बनात्मक स्थिति, परिस्थिति पर, असंगतियों विसंगतियों पर केवल खीजता भर हो, ऐसा नहीं है। वह उन पर चोट करता है- जनसाधारण को जैसे जगाने, जताने के लिए और ऐसा करते-करते बड़े चुटीलेपन से उसे छू भी जाता है, चिकोटी सी काटने की तर्ज पर-
खोजते हो तुम जिसे/मिल पाएगा तुमको कभी?

ये मुखौटों के/ नक़ाबों के/लिबासों के शहर हैं
क्या लुभावन भव्यता है/जगमगाते राजपथ
तुम न समझोगे इन्हें/ये सब छलावों के डगर हैं
और फिर जैसा ऊपर कहा गया है- जैसे चिकौटी सी काटता है-
एक पिद्दी सी क़लम है/भाव इतने खा रहे हो?

सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक-अर्थात एक प्रकार से जीवन के हर क्षेत्र में उनके कवि के आस-पास जो घट रहा है, उसमें सच्चाई से उसके चरित्र से, पाखंड से, ढोंग से, उसकी भंगिमाओं से वह सुपरिचित है। समय-समय पर गाये गये, उछाले गये नारो, किये गये वायदों की अलंकारिता से वह सुपरिचित है। उसे भलीभांति पता है कि यह सब शेक्सपीयर के वडर््स और ‘इज़ी लाइक दि विंड’ का अनुवाद भर है, चांदी के वर्क लगे फीके पकवान-

क्यों मगर के आंसुओं से/पुल बहाए जा रहे हैं
मर गईं संवेदनाएं/आदमीयत मर गई है
और हम/नव जागरण के/गीत गाये जा रहे हैं

किसका नव जागरण, कैसा नव-जागरण। ‘राही’ जी की कवि दृष्टि से उसकी अपनी बिरादरी भी नहीं बच पायी है। यद्यपि यह सच है कि कवि या साहित्यकार आखिर व्यक्ति ही है, फिर भी ‘राही’ जी के कवि की निगाह में उसका दायित्व कुछ अधिक है, उससे अपेक्षाएं भी अधिक हैं, समाज के परिप्रेक्ष्य में। तभी वह सस्ती लोकप्रिय कविता और कवि की खबर बड़े धारदार व्यंग्य का सहारा लेकर लेता है-
गिनी चुनी/दस रचनाएँ भी/बहुत कमाने खाने को हैं:

पढ़ने को साहित्य तुम्हारा/कितना समय ज़माने को है?
बीज मन्त्र बाँधो मुट्ठी में/और मंच पर/चढ़कर छाओ!

‘राही’ जी का रचनाकार अपने आस-पास व्याप्त विद्रूपताओं, विसंगतियों, लूटपाट, मूल्य-स्खलन आदि के चलते मारक स्थितियों पर केवल खीझता भर ही हो, केवल उदासी ढोता ही दिखता हो, विवशता का रोना ही रोता हो और तिलमिलाकर रह जाता हो या व्यंग्य-बाण लेता हो, ऐसा नहीं है। उनका रचनाकार अंधेरे के इस जानलेवा जाल के कुचक्र में भी आस्थावान है, आशा से ओत-प्रोत। यह आशा, आस्था संकल्पधर्मी है-
बो दिया है जो पसीना/अंकुरित होकर फलेगा

उनका रचनाकार केवल पसीना बोने और उसके अंकुरण की ही बात नहीं करता अर्थात् केवल हुंकार धर्मी ही नहीं वरन् कभी-कभी एक विशुद्ध मानव मुद्रा में तमाम झगड़ों झंझटों का तकिया लगाकर आराम से किसी कोमल लावण्यमय संसार का वासी भी होता है-

मन हलकालें/हरसिंगार की/छांव बैठकर पल भर
चलो आज फिर/उतर धार में/लहरों में खो जायें

आज के दौर में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए, जो स्थितियां हैं, उनमें सहज रह पाना, साबुत रह पाना, स्वस्थ रह पाना अत्यंत कठिन है। राही जी का रचनाकार, जैसा पहले भी कहा जा चुका है, जीवन का सब कुछ स्वीकार करते हुए चलता-फिरता रचनाकार है, जिजीविषा का खिलंदर रूप परोसता बांटता हुआ-
भर लेने दो/गंध आंजुरी
फिर/पंखुरी-पंखुरी बिखरेंगे।

अपने प्रस्तुत संग्रह का श्री गणेश वे स्नेह, प्यार की संजीवनी के गायन से करते हैं। केवल गायन ही नहीं करते उसे आत्मसात् करने का संदेश देते हैं, आहवान की सीमा तक-
बाँध भर लें बाजुओं में/रूप वह अविकल
हों छलकते रस कलश/ये गीत के आखर
उनके इस नेह पगे स्वर का ही संसार है, जिसमें उनके समानधर्मा आत्मीय स्वर्गीय रचनाकारों के लिए भी सम्मानजनक सुधिपूर्ण स्थान है-
तुम्हारी याद के बादल/सघन गहरा रहे आकर
‘मेघा बरसे’ नामक गीत में उनका रचनाकार आज के जीवन की एकांगिता पर पैनी दृष्टि डालता है। तमाम ज्ञान-विज्ञान के नित्य नूतन शिखर चढ़ते हुए मनुष्य उस स्थिति में आ पहुंचा है जहां-
बांहो में भर लिया समंदर/बूंद-बूंद को तरसे।

‘घूंघट तनिक उघारो’ और ‘कदम चलने लगे हैं’ नामक गीतों में उनके रचनाकार का स्वर स्त्री की पीड़ा को ही अभिव्यक्त नहीं करता, उसकी चेतना के उभरते, खुलते, व्यापक होते स्वरूप को, संकल्प को लिपिबद्ध करता है। स्त्री की इस चेतना में आशा का स्वर है, आस्था का ठोस धरातल है और एक प्रकार मुट्ठी-तना हुआ संकल्प भी। यह स्त्री-चेतना ऊर्जा से लबरेज, दृष्टि से सम्पन्न, आत्म-विश्वास और अपनी ताकत के सुखद अहसास से चेतावनी देती है-

अब कोई पर्वत न रोके/ये कदम चलने लगे हैं
अब सजावट के नहीं/हम शक्ति के प्रतिमान होंगे
थे तुम्हारी नींव के/अब/शीर्ष के सम्मान होंगे
छू सको तो/उड़ चले लो/पंख में नक्षत्र बाँधे

इन स्वरों के अतिरिक्त उनके रचनाकार के स्वर में पावस है, लताएं हैं, कुंज है, बादल है अर्थात यतकिंचित प्रकृति भी है। उम्र के जिस पड़ाव पर ‘राही’ जी हैं, उसके चलते कभी-कभी बचपन की यादों ने भी दस्तक दी है तो कभी-कभी पूरी जीवन यात्रा का सारांश भी, पीड़ा, उदासी, अनमनेपन, में समाकर उभरा तो उसके साथ ही ऊर्जा का एक स्वर यह भी-

तोड़कर वर्तुलाकार ये दायरे/उड़ चलें/सामने मुक्त आकाश है
रूप है/प्यार है/सत्य सौन्दर्य है
हैं समर्पण-शिखर/दृप्त मन्दाकिनी।
कुल मिलाकर उनके रचनाकार ने कथ्य को यथोचित वैविध्य प्रदान किया है।
संग्रह से गुजरते हुए पाठक को कथ्य के वैविध्य, सरोकार सम्पन्नता के दर्शन तो होंगे ही, उसी के अनुरूप सहज, स्वाभाविक भाषा में डूबने-उतराने का आनन्द भी प्राप्त होगा।
शून्य की निस्तब्धता में/प्यार ही तो गा रहा है
जैसे वाक्यांश रचनाकार की कोमल, प्रेमल भावनाओं और भाव के परिचायक हैं तो-
हमारे पास दौलत है/हमारे स्वेद के सीकर
जैसी शब्दावली उनके श्रम के प्रति उदात्त दृष्टिकोण, उसकी महत्ता और उसकी सम्मान-प्रतिष्ठा का प्रमाण भी।
मुझे पूरी आशा और विश्वास है कि प्रस्तुत संग्रह हिन्दी काव्य-जगत को समृद्ध करेगा।


वेद प्रकाश शर्मा ‘वेद’

सी-1, शास्त्री नगर
गाजियाबाद-201002