भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीत / परमानन्द पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूनॅ करी वृन्दावन
गेलै मनमोहन
हरि, हरि, बिलपै छै प्रान रे!
जेहे पथ हरी गैलै
दूभिया जनमि गेलै
घाट-बाट भेलै बियोबान रे॥
पिन्हले पिताम्बर
लकुट-मुकुट धर
बसिया सबद नै सुनाय रे!
बने बन गैया
खोजै छै कन्हैया
डकरि-डकरि रही जाय रे॥
नीन नहिं पल भरी
चैन नहि तिल भरी
रात भेलै बजड़ पहाड़ रे!
घॅर भेलै तन-मन
मोरा लेखें दिनमाँ अन्हार रे॥
कोय नै कदमॅ तर
झरै पात खरभर
हकनै छै जमुनारॅ कूल रे!
ब्रज के गोपिनियाँ
बनलै जोगिनियाँ
हरी भेलै डुमरीरॅ फूल रे!