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गीत 16 / दोसर अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
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साधक के चाही इन्द्रिय के बस में रखि केॅ ध्यावै।
मन-बुद्धि के रखै धीर से स्थितप्रज्ञ कहलावै।
सकल उर्ध्वचेता चरित्र के
मन ही पतन करै छै
साधक हमरा में चित्त रोपी
नित स्मरण करै छै
हे अर्जुन! से पावै हमरा, जे आसक्ति नसावै
साधक के चाही इन्द्रिय के बस में राखि केॅ ध्यावै।
आसक्ति बरबस इन्द्रिय के
खींच विषय से जोड़ै
जबरन मन के हरण करै
प्राणी हमरा तब छोड़ै
ज्ञानी भी तब जानि-जानि अंतिम तब जानि न पावै
साधक के चाही इन्द्रिय के बस में रखि केॅ ध्यावै।
जब-जब चिन्तन करै विषय के
आसक्ति तब जागै
आसक्ति जब जगै
कामना सहज विषय संग लागै
और कामना खण्डित होतें, तुरत क्रोध उपजावै
साधक के चाही इन्द्रिय के बस में रखि केॅ ध्यावै।