भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीत 18 / दोसर अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्‍गलपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भावहीन सुख शान्ति न पावै।
मन बुद्धि इन्द्रिय धीर बिन अन्तः भाव नसावै।

काम-क्रोध-मद-मोह-लोभ सब सहज भाव से जारै
आलस-भ्रम-परमाद मनुष के अन्तःलोक बिगारै
बुद्धि तरणि के मन वायु हरि कै कुघाट पर लावै
भावहीन सुख शान्ति न पावै।

हय संसार अगाध सिन्धु छिक, चतुर मलाह विवेकी
पाप प्रवृति तरंग भयंकरवज्ञ तजै नै नेकी
संयम के पतवार थामि कै गुणि जन पार लगावै
भावहीन सुख शान्ति न पावै।

एक इन्द्रिय, मृग-हाथी-मछली-पतंग के मारै
दस इन्द्रिय से बन्धल मनुष के कैसे कौन उबारै
एक लक्ष्य परमेश्वर के रखि केॅ उबार जग पावै
भावहीन सुख शान्ति न पावै।