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गीत 4 / तेरहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
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सुनोॅ धनंजय इहेॅ ज्ञान छै।
जहाँ दम्भ, आचरण नदारद, जहाँ श्रेष्ठता के न भान छै।
जे नै सतवै छै प्राणी के
क्षमा भाव राखै प्राणी पे,
मन-वाणी के सरल जे राखै
श्रद्धा भगति से गुरु के सेवै,
बाहर-भीतर शुद्ध जे राखै, अन्तः थीर, सदा समान छै
सुनोॅ धनंजय इहेॅ ज्ञान छै।
मन-इन्द्रिय के संयत राखै
जे कखनो अपशब्द न भाखै,
करै न निन्दा अरु कुटिलायी
बदला साधि न करै ढिठायी,
राग-द्वेष-छल-कपट दुरावै, जिनका निज दायित्व भान छै
सुनोॅ धनंजय इहेॅ ज्ञान छै।
जिनका नै इहलोक लुभावै
अरु परलोक न बड़ मन भावै,
रखै न कुछ आसक्ति भोग से
दुखित हुऐ नै दुख्ख-रोग से,
अहंकार के सहज दुरावै, जीवन-मृत्यु सब समान छै
सुनोॅ धनंजय इहेॅ ज्ञान छै।