भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीत 6 / सोलहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
Kavita Kosh से
दम्भ-मान-मद् निशिचर धारै
ओढ़ि रखै अज्ञान और मिथ्या सिद्धान्त स्वीकारै।
पूर्ण हुए नै सकै कामना
एहन कामना धारै,
और चरित में भ्रष्ट आचरण
करि के जतन उचारै,
स्वारथ राखि करै पूजन जे, पर श्रुति पंथ बिगाड़ै।
खान-पान अरु रहन-सहन सब
वेद विरुद्ध बुझावै,
बोलचाल-व्यवहार-आचरण
श्रुति सम्मत नै भावै,
चिन्ता चिता समान व्यक्ति के खोरि-खोरि कै जारै।
विषय भोग के भोगै खातिर
सकल भोग के भोगै,
सकल भोग के सुख समझी केॅ
नित दिन दुख उतजोगै,
अगणित आस, फाँस के जकतें, बाँधि जीव के मारै।
धन अरजै अन्यायपूर्वक
जग में धनवंत कहावै,
काम परायण क्रोध परायण
भौतिक सब सुख भावै,
ठगी-झूठ-हठ-छल-प्रपंच से, नित दिन धन विस्तारै
ओढ़ि रखै अज्ञान और मिथ्या सिद्धान्त स्वीकारै।