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गीत 9 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'

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बस हृदय ही
मिल सकेंगे हम मिलें संभव नहीं है
किस तरह का प्रेम है यह सोचना ही व्यर्थ होगा।
कह रही थी
साँझ हम से इक प्रणय संदेश पढ़कर-
मन! सँभल जाओ तनिक तुम और अपना मन खँगालो।
जानते हो जब कि मुझको पा न सकते हो कभी तुम-
फिर मुझे क्यों टूट कर यों प्रेम करते हो बता दो.?
मात्र मन के शुचि मिलन से प्रेम का उद्भव नहीं है।
यह तुम्हारा
नाम केवल नाम ही तो है नहीं री!
कृष्णिके! वह नाम जो पावन प्रणय का सार है री!
इसलिए इस नाम की हम भक्ति करने में जुटे हैं,
प्रेम में मिलना बिछुड़ना प्रेम का अधिकार है री!
प्रेम वो-जो मन छुए है मत कहो अनुभव नहीं है।
बोल दो री!
कृष्ण से क्या प्रेम उसका कम हुआ था.?
जबकि मीरा जानती थी यह मिलन संभव नहीं था।
ठीक वैसे ही तुम्हारे प्रेम में लाचार हैं अब,
प्रश्न कर अब मत करो, उपहास पगली! शुचि प्रणय का।
प्रेम है उत्सव हृदय का, भावना का शव नहीं है।