गुजरात और इराक की माएं / सपना चमड़िया
अभी दस दिन
सिर्फ दस दिन हुए हैं
मेरे बच्चे को घर से गये
कपड़े उसके मैंने ही रखे थे
एयर बैग में
फिर ना जाने कौन सी
गठरी में बांध ले गया
घर की सारी उमंग, चाव और शोर शराबा।
सब्जी का रंग एकदम फीका है
और दो प्याली चाय में ही
कट जाता है सारा दिन
इन्टरनेट और मोबाइल भी
बिल्कुल चुप है,
यहाँ तक कि टी वी भी
एक ही राग अलाप रहा है
वो हाथ नहीं न, जो बार बार
चैनल बदल देते हैं
हालांकि मेरे जेहन में
अभी भी विदाई देते उसके
पुष्ट हाथ काँप रहे हैं।
कोई लड़ाई नहीं
कोई फरमाइश नहीं
कि बाजार की भागमभाग भी
थम कर खड़ी है
कि बयासी-सतासी नं॰ का
स्कूटर भी नीचे पड़ा पड़ा
ऊँघ रहा है।
और वो नहीं है
तो दिलरुबा सी लड़की भी
कम ही आती जाती है।
हम दोनों भी चुप हैं
कि हमारी आधी रात का आश्वासन भी डरा सहमा है।
घर के दूसरे छोटे बच्चे
भी उदास हैं
कि घर में लॉलीपोप नहीं
महक रहा
कि आइसक्रीम नहीं पिघल रही।
पर बस आज की रात
कल ही दिन मंगलवार है
सुबह छः बजे आ जाना है उसे
आने की तारीख़ पता हो
तो बरसों कट जाते हैं।
पर एक लकीर सी
पड़ी हुई है दिल में
कि गुजरात और इराक
कि माओं का कोई एक दिन
मंगलवार होता है
और सुबह छः बजे
उनके घर तक कोई
रेलगाड़ी आती।