गुजर गयी अभिशप्त रात / आदर्श सिंह 'निखिल'
धरती के कोमल आँचल पर
झिलमिल मोती की मृदु कतार
कर यत्न रश्मि ले टांक गयी
हो कोमल काया स्याह क्षार
संतापों की जलती लौ में
पीड़ाओं सी रिसती रिसती
सब गुजर गयी अभिशप्त रात।
आक्षेपों के संस्करणों पर
यति धर धीरज धारे सुधीर
बन नीलकंठ पी गयी गरल
सब आत्मसात कर द्वंद्व पीर
पुचकार स्वप्नरत दिवसों को
भर अंक सांझ बन श्रमित भोर
उत्फुल्ल विप्लवित मानस में
जड़ में नव चेतन की हिलोर
भुवनों से गमनों में प्रभात
बस छोड़ गयी जग के उर में
आलोकित अन्तःकरणों में
धूमिल उजास के श्री पुर में
कितने हल की श्रीगाथायें
कितने अनसुलझे सवालात
तब गुजर गयी अभिशप्त रात।
मरुथल उपवन खंडहर भुवन
बिन भेद भाव सब पर उतरी
रंग एक रंग त्रैलोक निशा
कण कण पसरी तृण तृण बिखरी
रजताभ वसन श्यामल काया
शीतल आँचल मन ज्वाल जाल
वेदना तिरोहित सांसों में
कारुणिक सिंधु में स्वप्न ताल
सब प्रश्रचिन्ह लांछन तमाम
उपमान विशेषण ले निराश
सब कलुषित कर्मों की प्रतीक
मानुष मन नाहक अमलताश
निर्दिष्ट घोर तम में विवेक
उल्लिखित मिथ्य मन दृष्टिपात
कब गुजर गयी अभिशप्त रात।
अभिशप्त मौन मानस अतृप्त
जग तृष्णाओं का तुष्टि क्षेत्र
सहलाती श्रमित मनुजता को
आलिंगन ले नित मूंद नेत्र
पिघलाकर उन्नत भाल नित्य
भरती निशि-राज्ञी में जीवन
सरि सिंधु सरोवर के तट पर
धर जाती मरुथल पर मधुबन
सब ग्राह्य तुम्हे हे निराकार
अभिराम तरल मृदु सौम्य सरल
कटु कलुषित लांछन पूर्वाग्रह
मधु नीर छीर मय अमिय गरल
तुम धन्य सभ्यता संवाहक
निष्काम मनोरम पारिजात
अब गुजर गयी अभिशप्त रात
सब गुजर गयी अभिशप्त रात।