भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुदळकियां / मीठेश निर्मोही
Kavita Kosh से
सूरज रै आथमियां
स्हैर सूं
पूगयां
गांव
देखूं ...
जागै है
घर-घर।
बाड़ै-बाड़ै
बेेंबाड़ै है
रेवड़।
भाजै है आगै-लारै
तांबाड़ती गायां
रिड़कती भैंस्यां
सेवट पावसैला ई
मून धारयां
ऊभा है मिनख।
सगळां नै हेज रै हींडै
रमावै कांमधेण !