भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुमसुम है सारा संसार / सर्वेश अस्थाना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
गुमसुम है सारा संसार ।

मत गाओ अब कोई मल्हार।।
जीवन के गीत रहे शब्दरहित होकर
कुछ भी तो मिला नही सारा कुछ खोकर
मन के विश्वास चढ़ी काई भरी रपटन
सुलझन का दम्भ लिए उलझन को ढोकर
राशन पर मिलती बहार
गुमसुम है सारा संसार।
आंखों की डाल लगे सपनो के बच्चे
लेकिन पके नहीं टूट गए कच्चे।
आंधी सैलाब धरें पाताली लहरें
झूठ के किनारे पे डूब गए सच्चे।
मांझी का कैसा किरदार
गुमसुम है सारा संसार।
लाखों हैं साथी पर बिना हाथ वाले
कैसा है गठबंधन कौन साथ वाले
पाने को अनर्गल लगातार रगड़े
मछली सा मस्तक लिए माथ वाले।
सबका है अपना व्यापार
गुमसुम है सारा संसार।।