गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टेैगोर - दो / नज़ीर बनारसी
सुबह की शान से मुस्कुराता हुआ
पूरे बंगाल को जगमगाता हुआ
सबको किरनों की माला पहनाता हुआ
घूप अँधेरां के छक्के छुड़ाता हुआ
ले के तारीकियों का जवाब आ गया
चलता-फिरता हुआ आफ़ताब आ गया
ज़िन्दगी उसकी तलवार भी ढाल भी
उसके पाबोस तूफँा भी भूचाल भी
साज़ जैसा है वैसा है सुर-ताल भी
रक़्त में उसका माज़ी भी और हाल भी
कल वतन, आज दुनिया तरफ़दार है
तब तो भारत था उब पूरा संसार है
उनकी निचवन में ठाकुर का सा बाँकपन
उनकी नज़रों में जो शोख़ वह बरहमन
देवता की अदा महरिशों का चलन
आदमीयत की तब्लीग़ उन का मिशन
’काबुलीवाला’ कहने का उन्वान है
यह तो ठाकुर का काबुल पे एहसान है
साज़ को छेड़ते गुनगुनाते हुए
देश में देश के गीत गाते हुए
सोयी इन्सानियत को जगाते हुए
आदमीयत की शोभा बढ़ाते हुए
ताज़गी ब़ख्श दी रंग से राग से
बज़्म पर फूल बरसा दिये आग से
फूँक दी ज़रें-ज़र्रे में रूहे शबाब
अपने गीतों से रग-रग में भर दी शराब
बुझते चेहरों को दे दी नयी आबो ताब
इन्क़िलाब और इतना हसीं इन्क़िलाब
दी जिला ज़िन्दगी के ख़दो ख़ाल को
खु़द सँवरना पड़ा हुस्ने बंगाल को
बाग़ में जैसे नौखे़ज मालन कोई
जैसे घँूघट में शरमाये दुलहन कोई
मन में मुसकाये जैसे सुहागन कोई
जैसे दिखलाये रह-रह के दरपन कोई
उनके शब्दों में वो हुस्न वह बाँकपन
जैसी कच्ची कली और कुँवारी किरन
गीत सबकी मुहब्बत का गाते हुए
दिल का वीरान गोकु़ल बसाते हुए
इक नयी धुन में बंसी बजाते हुए
ख़ुद को और सबको बेख़ुद बनाते हुए
ले के गीतांजली सामने आ गये
और आते ही संसार पर छा गये
उनकी तस्वीर से भी अयाँ बाँकपन
चेहरा हँसता हुआ जैसे सुबहे-वतन
सर का हर बाल यूँ जेैसे रवि की किरन
फ़लसफ़ी उनके माथे की इक-इक शिकन
क़ाबिल फ़ख्ऱ है उनकी सज और धज
वह भी है जैसे इस दौर के पूर्वज
कम नहीं उनकी गर्मी-ए-बाज़ार भी
चित्रकार और अच्छे अदाकार भी
सोज़ भी, साज़ भी, साज़ के तार भी
देशभक्ति भी है प्रेम भी प्यार भी
आत्मा ही का यह बल है यह ज़ोर है
आज दुनिया में टैगोर टैगोर है
जु़ल्फ़े बंगाल पर जिनका साया है आज
जिनसे हर भारत का सर ऊँचा है आज
सारे संसार में जिनकी चरचा है आज
कारनामा हर इक जिनका ज़िन्दा है आज
जिनसे दुनिया ने पायी है ’गीतांजली’
उनको मेरी तरफ़ से भी श्रद्धांजली