भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुलबदन, गुल पैरहन गुंचा दहन याद आ गया / नज़ीर बनारसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुलबदन, गुल पैरहन <ref>लिबास</ref> ग़ुंचा <ref>कली</ref> दहन <ref>मुँह</ref> याद आ गया
जिस चमन में भी गये अपना चमन याद आ गया

धूप खायी गेसुए साया फिगन <ref>सायादार</ref> याद आ गया
जब हुई तकलीफ गुरबत <ref>परदेश</ref> में वतन याद आ गया

गिर गयी मेरी निगाहों से बहारे रंग-रंग
एक ऐसा हुस्न सादा पैरहन याद आ गया

सामने से कोई गुरजा आज इस अंदाज से
जिन्दगी को अपना खोया बाँकपन याद आ गया

आईने में अपने बालों की सफेदी देख कर
याद करता था जवानी को कफन याद आ गया

शहर में भी र हके दीवाना सँभल जाता मगर
शहरियों ने वो सितम ढाये कि बन याद आ गया

एक परदेशी से कर ली आज तुमने दोस्ती
क्या करोगे कल अगर उसको वतन याद आ गया

चौकड़ी भरते नहीं देखा कई दिन से ’नजीर’
हिरनियों को क्या कोई जख्मी हिरन याद आ गया

शब्दार्थ
<references/>