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गुलों में रंगत थी, शोखियाँ थीं / पुष्पेन्द्र ‘पुष्प’
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गुलों में रंगत थी, शोखियाँ थीं
जो साथ तुम थे, तो मस्तियाँ थीं
लबों पे शबनम लरज़ रही थी
मगर निगाहों में बिजलियाँ थीं
हमें क़मर से गिला नहीं था
हमारी दुश्मन तो खिड़कियाँ थीं
जिन्हें समझते थे नक़्शे-पा तुम
मिरी वफ़ा की निशानियाँ थीं
वही ज़माने से नाउमीदी
सुनी सुनाई कहानियाँ थीं
वहीं हुकूमत ने बेची हाला
जहाँ शरीफों की बस्तियाँ थीं