भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुवाड़ रो जायो / मोहम्मद सद्दीक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुवाड़ रो जायो
कींनै बाप कै‘र पुकारसी
आंख्यां खोलै थड़ी करै
जियां कियां चालणो चावै
गुवाड़ स्यूं घर
घर स्यूं सागी घर तांईं
पूगणै रा मारग पागड़ी रै पेचां दांईं
घणां घुमावदार है।
मारग में बिड़द बांचणियां
जच्चै जठै लाधै
तुरता-फुरत
याद दिलावै
आपरी, आपरै बाप री
आपरै खानदान री।
पांवड़ै दो पांवड़ै रो पैंडो
कोसां लाम्बो कर नाखै।
सांच नै झूठ में
बदलतां कितरीक ताळ लागै
जलेबी भांत गळ्यां रै
गूंगै झालां नै
कुणसी समझै
घिरै फिरै लाधै
सागी ठौड़।