भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुस्ताखी / संगीता कुजारा टाक
Kavita Kosh से
पेड़ पौधों से
हमारी अनबन हो गई है
विकास की
यह कैसी
हवा बह गई है
नदियों को
छोड़ दिया है
हमने बेपरवाह...
प्लास्टिक, कूड़े-कचरे
और रसायनिक मलबों के लिए
भगीरथ के वंशजों से जाने
कैसी गुस्ताखी हो गई?