गुस्सा कविता नहीं बन पा रहा है / सरोज कुमार
मेरा गुस्सा नहीं बदल पा रहा है
कविता में!
कविता की नस-नस में
व्याप जाए लावा
कविता की धड़कनों में
खड़कने लगे श्ंखध्वनि-
तब तो बात बने!
शायद मेरे बस का नहीं
कि लपलपाता गुस्सा
उतार सकूँ कविता में!
लोग वाह वाह करें
और गुस्सा उन्हें उबाल न पाए,
यह मुझे बरदाश्त नहीं!
कविता पहले और गुस्सा बाद में
मुझसे नहीं होगा!
मैं पालकी का नहीं
प्रतिमा का जुलूस चाहता हूँ!
आखिर गुस्सा लेकर
मुझे कविता में
घुसन ही क्यों चाहिए,
यह भी सोचता हूँ!
गुस्से के कपड़ों में
पगलाती कविता के
गाल लाल हो जाते हैं
भुजाएँ फड़कने लगती हैं
आँखें बरसाती हैं अंगारे
पर
उन्हें सुनकर
श्रोता मजा लेने लगते हैं
वीर रस का !
और-और मजा चाहते हुए
वंस मोर,वंस मोर चीखते हैं,
पर खलनायकों के खिलाफ
खड़े होते नहीं दिखते हैं!
कविता को छोड़कर
क्या शस्त्रागार में घुसना
ठीक होगा?
पर वहाँ इन दिनों
योग कि कक्षाएँ लग रही हैं!
गुस्सा कविता नहीं बन पा रहा है,
और मेरे पास
कविता के अलावा कोई शस्त्रागार
नहीं है!