भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गूँगे-बहरे बन जायें मंज़ूर नहीं / डी .एम. मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गूंगे - बहरे बन जायें मंज़ूर नहीं
गिरवी हो यह क़लम हमें मंज़ूर नहीं

सत्ता से हम टक्कर लेते आये हैं
हम दरबारी ग़ज़ल कहें मंज़ूर नहीं

जो होगा सो होगा देखा जाएगा
सच से हम डरकर भागें मंज़ूर नहीं

सेाने की भी जाँच कसौटी पर होती
हम हर बात पे हाँ बोलें मंज़ूर नहीं

अच्छे दिन की ख़ातिर जाँ भी हाज़िर है
तिल - तिल करके रोज़ मरें मंज़ूर नहीं

अश्कों से भी अपने दीप जला सकते
अंधे कूप में डूब मरें मंज़ूर नहीं

ये हालात बदलने ही होंगे यारो
और करें अब देर हमें मंज़ूर नहीं