भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गेथ्स-मेन का उद्यान / बरीस पास्तेरनाक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सड़क के मोड़ भासित थे
दूरस्थ तारकों की उदासीन झिलमिलाहट से ।
ओलिम्स की पहाड़ी को घेरे हुए थी सड़क
और नीचे बहती थी कैड्रोन नदी ।

मैदान निश्शेष हो गए थे, आकाशगंगा में जाकर ।
श्वेत-केशी जैतून, जैसे हवा को उड़ाकर
दूर-दूर तक ले जाने की कोशिश में थे ।
द्वार के उस पार उद्यान था एक वनस्पति का ।

अपने अनुयायियों को छोड़कर घेरे के बाहर
उसने प्रवचन किया-
मेरी आत्मा शोकाकुल है मृत्यु की पहुँच तक,
ठहर जाओ यहीं और देखो सब कुछ मेरे संग ।

बिनाकिसी अवरोध के
उसने त्याग दी अपनी सर्वशक्तिमत्तता
और ताक़त अनहोनी करने की
जैसे उधार ली हुई वस्तु हो ।
अब वह नाशवान था हम लोगों की तरह ।

वह रात एक साम्राज्य थी विनाश का, अनस्तित्त्व का
सारा संसार जैसे बिना किसी प्राणी के था ।
मात्र यही उद्यान एक जगह थी जहाँ जीवन था ।

उसने गौर से देखा काले खड्ड में
जहाँ थी शून्यता बिना किसी ओर-छोर के
रक्त-स्वेद से भींज कर
उसने प्रार्थना की ईश्वर से
कि गुज़र जाने दो मृत्यु को मुझसे होकर ।

अपनी पीड़ा को प्रार्थना से सहलाकर
वे बहिर्गत हुए उद्यान द्वार से
जहाँ उनके अनुयायी तंद्रा से पराजित
पड़े थे घास पर ।

उसने उन्हें जगा कर उनसे कहा--
ईश्वर ने जीने का वरदान दिया है मेरी कालावधि में
और तुम इस तरह ढिलमिला रहे हो ?
आ गया मनुज के पुत्र का अपना समय
वह सौंप देगा अपने को पापियों के हाथ में ।

मुश्किल से वे इतना ही बोल पाए थे
कि कौन जाने कहाँ से
दासों और तस्करों का एक झुंद
प्रकट हुआ मसालों और छुरों के साथ
और उनके आगे-आगे था 'जुडाज'
अपने द्रोहपूर्ण अधर चुम्बन के साथ ।

पीटर ने हत्यारों को रोका
एक के कान काट लिए अपनी तलवार से
तब आवाज़ गूँज उठी-
लौहास्त्र से फ़साद का फ़ैसला नहीं हो सकता
अपनी तलवार म्यान में रखो, पीटर ।

क्या परम पिता ने मेरी रक्षा के लिए
भेजा नहीं है पंख-युक्त एक सैन्य दल ?
तब मेरे सर का एक बाल बाँका भी नहीं कर सकता कोई ।
शत्रु बिखर जाएँगे
और उनके कोई चिन्ह नहीं शेष रह पाएँगे ।
किंतु जीवन-ग्रंथ पहुँच गया है उस पृष्ठ पर
जो परम मूल्यवान है सभी पावन वस्तुओं में ।
विधाता ने जो लिखा है
उसका पालन अवश्य होगा
उसे वैसा होने दो- आमीन !

तुमने देखा नहीं
सदियों का गुज़रना एक आख्यायिका की तरह है
और उसका, आग पकड़ लेने पर जल जाने जैसा है ।
उसकी दारुन महिमा के नाम पर
मैं बिना किसी हिचकिचाहट के असीम पीड़ा भोगते हुए
उतर जाऊँगा क़ब्र में ।

और तीसरे दिन फिर मैं प्रकटूँगा
नदी में बहते बाँस-बल्लियों की तरह ।
अंधियारे क्षितिज से निकलकर
सदियाँ तक उपलाती हुई आएँगी मेरे पास
कतारबद्ध नौकाओं के कारवाँ की तरह
और मैं फ़ैसला दूँगा उनका ।