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गेसू है कि भादों का घटाटोप अँधेरा / नज़ीर बनारसी

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गेसू है कि भादों का घटाटोप अँधेरा
हँसता हुआ मुखड़ा है कि पनघट का सवेरा

हर वर्क <ref>फूल की पँखुड़ी</ref> के लब पर किसी राधा का तबस्सुम
हर घन की गरज में किसी घनश्याम का डेरा

ये सरमई आँचल ये दमकते हुए आरिज <ref>कपोल</ref>
तुम शाम अवध की तुम्हीं काशी का सवेरा

मालूम नहीं कौन सा जादू है नज़र में
जो सामने आता है वो हो जाता है तेरा

हम कब से लिये बैठे हैं अरमानों की दौलत
मिलता ही नहीं कोई करीने का लुटेरा

डरता हूँ कि डस न ले सपेरे को वही साँप
जिस साँप से चलता है बहुत बच के सपेरा

तनहाई के जीने <ref>जीना, सीढ़ी</ref> पे क्या करता है चोटें
गाता हुआ बरसात की रातों का अँधेरा

आने लगे दौलत के पुजारी को ख़ुदा तक
बुतखाने की गलियों मं लगाता हुआ फेरा

पल्ले में ’नजीर’ अपने न दुनिया है न उक्बा <ref>परलोक</ref>
लूटे भी तो क्या लूट के ले जाये लुटेरा

शब्दार्थ
<references/>