गेहूँ और कान की बाली / बाल गंगाधर 'बागी'
गेहूँ की बाली खेतों में, मन की डाली मंे डोल रहें
धूप छांव के कंधों पे, हर रहस्य हैं अपना खोल रहें
बालाओं के कानों वाली, नज़रें कितनी हैं टटोल रहंे
घर की बाली से खेतों तक, सवर्णों के मन डोल रहें
पैदा घर की दहलीजों में, कितने कांटों के बींघों से
वो जवां हुई नज़रों में तड़प, कितने भौरों के सीने में
चलती है वह मटक जहाँ, दरिया जिसपे मनमानी है
बेकस कश्ती भौरों में तड़पती, उसकी यही कहानी है
खाये हों थपेड़े मौसम के, बीज से बाली बनने तक
कितने ओझल दिन रैन हुए, बीज से रोटी बनने तक
कितनी दोपहर में नग्न खड़ी, सुनहरी, लाली के जैसे
क्यों? दूर हुई खलियानों से, घर जाती हुई सवर्णों के
दोनों बाली की दशा एक, न घर मेरे रह पाती है
अपने हाथों से निकल, लाचार हमें कर जाती है
दोनों पे मेहनत खर्च मेरे, कई ख्वाब सदा बुन जाती है
क्यों अनन्त प्रश्न सवर्णों के, वो घर जाकर बन जाती है