भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गेहूँ / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
गेहूँ का रंग
सोने के रंग से
ज़्यादा चटक होता है
और जब वह होता है
लहलहाते हुए खेत में
तो उसे निहारते हुए
भूख तक ख़त्म हो जाती है
हवाएँ चलती हैं
तो गेहूँ के पौधे
नम्रता से झुक जाते हैं
और उसकी गंध देर तक सीवान को
महकाए रहती है
गेहूँ के पौधे
घुंघरू की तरह बजते
तो मुझे याद आती है
खलिहान में चलती हुई अपनी माँ
माँ कहती थी
गेहूँ सबसे स्वादिष्ट अनाज़ है
शंख की तरह सुघड़
दाने माँ को पसन्द थे
रोटी का स्वाद खेत से शुरू होता है
और जब वह नहीं पहुँच पाता
भूखे आदमी के मुँह तक
तब भूखा आदमी भूकम्प की तरह
पूरे ग्लोब पर उठता है
और सारी चीज़ें उसके इशारे पर नाचने लगती हैं