गोकुल आवाज़ें देता है / राकेश खंडेलवाल
लालायित शब्द अधर के हैं, सरगम का चुम्बन पाने को
पर तार न छिड़ते वीणा के, स्वर टूट गले में जाता है
ओढ़े खामोशी बैठे हैं, मन की कुटिया घर का अँगना
पायल से रूठा लगता है, गुमसुम है हाथों का कँगना
नयनों की सेज सजी, पल पल आमंत्रित करती रहती है
पर मिलन-यामिनी को करने साकार, नहीं आता सपना
अँगड़ाई लेते हुए हाथ आतुर हैं कुछ क्षण पकड़ सकें
द्रुत-गति से चलता समय मगर, कुछ हाथ नहीं आ पाता है
अंबर की सूनी बाहों में बादल भी एक नहीं दिखता
पदचिन्ह बिना सूनी तन्हा, सागर तट बिछी हुई सिकता
मन का वॄंदावन सूना है, कालिन्दी के फिसलन वाले
घाटों पर एक निमिष को भी, भावों का पांव नहीं टिकता
गोकुल आवाज़ें देता है, हरकारे भेजे गोवर्धन
पर बढ़ा कदम जो मथुरा को, अब लौट न वापस आता है
दीपक की ज्योति निगल कर तम फैलाता है अपने डैने
सन्ध्या प्राची की दुल्हन को पहनाती काजल से गहने
बादल के कफ़न ओढ़ चन्दा, सोता यौवन की देहरी पर
मेंहदी के बोल मौन रहते, पाते हैं कुछ भी न कहने
आँजुर की खुली उंगलियो से रिसते संकल्पों के जल सा
प्रत्याशित सौगंधों का क्षण, फिर एक बार बह जाता है